शहरी परिवहन पर संवाद : रास्ता किधर हैं ?

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शक्ति सस्टेनेबल एनर्जी फाउंडेशन ने शहरी परिवहन पर एक संवाद का आयोजन किया | यह संवाद शक्ति द्वारा आयोजित विभिन्न मुद्दों पर आयोजित होने वाली संवाद श्रृखला का हिस्सा था | शक्ति की ओर से  शहरी परिवहन के विभिन्न पक्षों के बारे में कुछ मुद्दें रखे गए  जिन पर चर्चा करने और आगे की रणनीति बनाने की जरुरत थी | इन मुद्दों में अर्बन  गवर्नेंस, नेशनल अर्बन ट्रांसपोर्ट पालिसी, फ्रेट ऑपरेशन, अन्तर्राष्ट्रीय बेस्ट प्रैक्टिस, कैपिसिटी बिल्डिंग, टूल किट, सस्टेनेबल अर्बन ट्रांसपोर्ट, मेट्रो और बस की एकल टिकट प्रणाली   जैसे सवालों पर अलग-अलग स्तर पर क्या-क्या हो रहा है और आगे इन  सवालों पर क्या और कैसे करना है ?

यह संवाद भी पूर्व में हुए चर्चाओं की तरह एक परिवर्तित मन और कर्म के साथियों की आपसी बातचीत ही कही जा सकती है | सभी वक्ता इस बात पर सहमत थे कि नेशनल अर्बन ट्रांसपोर्ट पालिसी है लेकिन उसका अमल नहीं हो पा रहा है |

फ्रेट ऑपरेशन के बारे में कोई मुकमल नीति नहीं है जिससे अराजकता की हालत बनती जा रही है | अन्तर्राष्ट्रीय बेस्ट प्रैक्टिस को भारत में प्रचारित और लागु करने की आवश्यकता है | सरकार के उतरदायी विभागों में कैपिसिटी का अभाव है | टूल किट का निर्माण और उसका हर स्तर पर प्रसार किया जाना चाहिए | सस्टेनेबल अर्बन ट्रांसपोर्ट के विभिन्न मोड पर जनजागरण और इसके लिए माहौल बनाना जरुरी है | लोक परिवहन के साथ-साथ मेट्रो और बस में एकल टिकट प्रणाली लागु करने के आवश्यकता है | उम्टा और एसयूपीटी और एसपीवी जैसे ढांचा बहुत पहले बन चूका है यह सभी जगहों पर लागु नहीं है यदि कही लागु है हो कारगर नहीं है | मोटे तौर पर छोटी मोटी वैचारिक मतभेद के बावजूद इन तमाम सवालों पर आपसी रजामंदी थी और पहले भी ऐसी ही हालत रहे हैं | संवाद में भाग ले रहे अधिकांश प्रतिभागी अपने तथा अपने समूह के द्वारा किया जा रहे पहल को सभी के साथ साझा कर रहे थे और कहाँ-कहाँ कमजोर पक्ष है उसे रेखांकित कर रहे थे |

लेकिन इन साझा तथ्यों से इतर भी एक तथ्य भी इस संवाद में रखा गया कि इतने पैसे और पहल के बाद भी अगर हालत में कुछ देखने युक्त बदलाव नहीं हो रहे हैं तो कारण क्या है ? रास्ता क्या है ? संवाद में भाग ले रहे सभी प्रतिभागी समाजिक, भौगोलिक, आर्थिक, लैंगिक, भाषाई, बहुविविधता को मानते है | जिस समाज में हर कोई पैदल चलता हो, बहुत बड़ी आबादी साइकिल चलता हो और लोक परिवहन के चाहने और उपयोग करने वालों की अच्छी खासी संख्या हो | वहां हमें सस्टेनेबल अर्बन ट्रांसपोर्ट के पक्ष में खड़े होने के लिए लोगों को तलाश करने की जरुरत पड़ती है | इसके कारण को ढूढ़ना पड़ेगा | हमें यह देखना होगा कि जो लोग पद यात्री और साइकिल चालक है उनकी भाषा क्या है और उनकी भाषा में ही टूल और तार जोड़ना पड़ेगा | हम सब का टूल किट सिर्फ इंगलिश के वजाए मलयालम, तेलगु, तमिल, कन्नड़, मणिपुरी, गुजराती, मराठी, बंगला, हिंदी जैसे भाषायों में भी बनाना और बाटना होगा | ताकि वे परिवहन के इन साधनों के व्यक्तिगत, सामाजिक, राज्य-राष्ट्र और अन्तर्राष्ट्रीय महत्व और लाभ हानि को जान समझ सके जिससे जिन वाहनों को वे उपयोग करते हैं उनके साथ खड़े होकर उनका हक मांग सके | एक लोकतांत्रिक शासन के ढांचा में अगर बहुसंख्यक आबादी को सस्टेनेबल ट्रांसपोर्ट के माध्यम को पिछड़े-पन के प्रतीक में रूप में स्थापित कर दिया गया है तथा समाज के परिवर्तनकारी समूह और राजनैतिक नेत्रित्व ट्रांसपोर्ट के सवाल को इंजिनियर और और कांट्रेक्टर के सवाल के रूप में ही देखता हैं तब यह जरुरी हो जाता है कि परिवहन के क्षेत्र में सक्रिय परिवर्तन गामी समूह इस मुद्दे को समाजिक और राजनैतिक तौर पर सक्रीय समूहों के साथ साझा करे और साझी समझ बनाये ताकि धीरे-धीरे यह जनता को मुद्दा बन जाये और इसकी भाषा, तकनीक, मुहावरे जन पक्षियें हो जाये | जनता नेता को सुनाने और लागु करने के लिए मजबूर कर दे | दुनिया में अच्छे बदलाव ऐसे ही आये हैं | मेट्रो और बस में एकल टिकट क्यों नहीं हो पा रही है क्योकि मेट्रो बस को पछाड़ना चाहती है इसलिए कोई भी साझे पहल के वह खिलाफ खड़ी हो जाती है | जहाँ तक कैपिसिटी बिल्डिंग और गवर्नेंस का प्रश्न है उसके बारे में नगर निकाय की बात क्या की जाये जब देश का सर्वोच्च मंत्रालय के पास शहरी परिवहन विशेषज्ञों को टोटा लगा हो तो राज्य और जिले स्तर की कल्पना की जा सकती है | अगर समाजिक तौर पर परिवहन का मुद्दा उठने के माहौल को बनाने में परिवहन क्षेत्र में सक्रिय लोग करेगें तब कैपिसिटी बिल्डिंग और गवर्नेंस को ठीक होने की सम्भावना बढ़ जाएगी | एक साथी ने बताया कि पिछले कई सालों से वे इन सवालों पर लिखते हैं | जिस दिन वे इंगलिश में लिखते हैं उस दिन उनके सहकर्मियों की प्रतिक्रियाएं आती है और जिस दिन गुजराती में लिखते है उस दिन आम समाज के लोग प्रतिक्रिया देते हैं | यह छोटा सा पायलट टेस्ट से भी हमारे मुश्किलों का रास्ता दिख सकता है |

जहाँ तक अंतर्राष्ट्रीय बेस्ट प्रैक्टिस के डॉक्यूमेंटेशन का सवाल है इस दिशा में भी सोच समझ कर कोशिश करना ज्यादा उपयुक्त रहेगा | अभी हमारे देश के विभन्न भागों में किराये की साइकिल और साझे साइकिल की परम्परा कायम है चुकी साइकिल ही पिछड़ गया है इस वजह से यह प्रक्रिया भी नयी तकनीक और नये रूप में नहीं आ रही है यदि इसका ठीक से डॉक्यूमेंटेशन करते हुए इसके साथ जुड़े समूहों को नेत्रित्व दिया जाय तो समाजिक स्वकारिता की संभावना ज्यादा हो सकती है तथा असफलता का प्रतिशत कम हो सकता है | उसी तरह हम कार-फ्री सिटी के उदाहरण हमेशा बाहरी मुल्को का ही देते हैं, जब कि शिमला को कौन नहीं जानता है | शिमला शहर को ह्रदय स्थल आरम्भ से आज तक कार-फ्री ही रहा है | यही इस शहर का सौन्दर्य है इसी से देश और दुनिया के लोग खीचें चले आते हैं | ऐसा नहीं की यह ब्रिटिश शासकों ने बनाया, बल्कि ऐतिहासिक रूप से शिमला कार-फ्री ही था | दुनिया में शायद ही कोई शहर हो जो अपने जन्मकाल से लगातार इस ढांचा को बरक़रार रखा हो | दूसरा आधुनिक उदाहरण फाजिल्का का है | जो दुनिया को रोशनी दिखता हैं | हमें अपने समाज से हजारों उदाहरण और प्रतीक मिल सकते हैं जरुरत है उस दिशा में सोचने और खोजने की |

2005 में पहली बार जब शहरी विकास मंत्रालय में मंत्री और उनके प्रशासनिक पदाधिकारियों के साथ देश भर के आन्दोलन समूहों की मीटिंग हुई और उस मीटिग में जब पैदल यात्री, साइकिल और साइकिल रिक्शें के सवाल उठाया गया तो उन्होंने पदाधिकारी से पूछा कि इनके सवाल का क्या जवाब है | तब पदाधिकारी ने कहाँ कि ये लोग जो कह रहे हैं वह सही है और हम इस मुद्दे को नीति ड्राफ्ट में डाल रहे हैं | उसके बाद 2006 के राष्ट्रीय शहरी  परिवहन नीति बनी | इस नीति के एक दशक हो गए है लेकिन इसके बारे में शहरी परिवहन पर काम करने वाले समूहों को छोड़ कर शायद ही कोई जनता हो | राज्यों ने इस दिशा में न कोई पहल की है और न पहल करने की मंशा दिखती है | जब की शहरी परिवहन का मुद्दा राज्य का मुद्दा है और इसका सम्बद्ध सीधे तौर पर शहरी निकाय से है जो एक सवैधानिक अनिवार्यता भी है और एक जनतांत्रिक जरुरत भी |

एनएपीएम जैसे राष्ट्रीय नेटवर्क से जुड़े कई समूह इन सवालों पर विगत कई सालों से काम कर रहे हैं इस लिए एनएपीएम ने इस मुद्दे को समझाना और अपने मंचो से उठाना  शुरू किया धीरे-धीरे इसका विस्तार होता गया और अब उसके साथ काम कर रहे संगठनो ने  इसे आन्दोलन के मुद्दे के रूप में उठाते रहते हैं | यही वजह है कि अब दिल्ली और देश के कई शहरों में शहरी बिस्थापन से प्रभावित लोगों ने परिवहन के सवाल को पुरजोर तरीके से उठाया है और कहा है हमारा घर हमारे काम के स्थान के पास था लेकिन सरकार ने पुनर्वास के नाम पर हमें शहर से बाहर और काम के स्थान से दूर धकेल दी है | यह बात कोई एक दिन में समाज से बाहर नहीं आया बल्कि इसे समझाने और बताने में वर्षो लग गए | आज यही बात संपन्न समाज के लोग एक ‘सूत्रवद्ध फार्मूला’ एक रूप में कहते है ‘वर्क फ्रॉम होम’ ‘रिडुज मोबिलिटी वर्क फ्रॉम होम’ | स्ट्रीट वेंडर के कुछ समूह भी अब इस प्रक्रिया का अंग बन रहे हैं |  एनएपीएम इस सवाल से जुड़े सामग्री को वे मराठी, मलयालम और अग्रेजी में पत्रिकायों में प्रकाशित करते हैं जिसके कारण कई भाषाई कार्यकर्ता इस मुद्दे के संपर्क में आये हैं | अभी सम-नेट में एनएपीएम से जुड़े कई व्यक्ति और संगठन काम कर रहे हैं जो भाषाई आधार पर अलग-अलग है लेकिन काम का साझा पन है | कुछ संगठन घरेलु कामगारों के साथ काम करते हैं, तो कोई शहरी गरीबों के साथ, कोई पर्यावरण के सवालों पर वर्षो से काम कर रहे है | लेकिन अब वे समनेट के माध्यम से परिवहन के मुद्दे को मुख्य धारा के साथ जोड़ने की कोशिश में लगे हैं | इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि साथ आने से एक दुसरे के मुद्दे को भी नयी तरह से जान समझ रहे हैं जो इससे पहले संभव नहीं था | सम नेट इस बहुविविधता हो आगे बढ़ाने की कोशिश में लगा है लेकिन यह काम आसान नहीं है इससे कई बार काम की गति प्रभावित होती है | समूहों और कार्यकर्ताओं से सक्रिय रिश्ता बनाना पड़ता है क्योकि अधिकांश समय भाषाई विश्लेषण समझने में देर लगता है जिसे समझने के लिए समूह और व्यक्ति के साथ जीवन्त सम्बन्ध बनाना पड़ता है इस प्रक्रिया में अभी समनेट के कई पार्टनर मराठी, हिंदी और इंगलिश में अलग-अलग शहरों में काम कर रहे है |

किसी भी नीति, तकनीक और रणनीति की जाँच परख का सबसे बड़ा प्रयोगशाला समाज ही है और उसी के दबाव से समाधान का रास्ता निकलता है |
इस टिप्पणी को शक्ति द्वारा आयोजित संवाद के संदर्भ में देखने के बजाय व्यापक सन्दर्भ में देखा जाये |

लेखक इंस्टिट्यूट फॉर डेमोक्रेसी एंड सुस्टेनेबिलीटी(आइडीएस) दिल्ली के निदेशक और समनेट के सदस्य हैं |